कितना वक़्त बीत गया, पता ही नहीं चला। मानो सूरज डूबा और आँख खुलते ही उग आया हो। सूरज का यह उगना और डूबना ज़िन्दगी को कई टुकड़ों में बाँट देता है।
कई बार सोचता हूँ और कोशिश करता हूँ की बिखरे टुकड़ों को एक क्रम दूँ लेकिन फिर जैसे एक के कई कई टुकड़े हो गए हों।
दिनचर्या कब शुरू होती है और कब ख़त्म जैसे इस से मेरा कोई लेना देना ही न हो। बस काम ही काम, चाहे वह बेकार का हो या ज़रूरतों से भरा हुआ।
कई बार ज़िन्दगी के इस अनचाहे, मन में बैठे दर्द को – बांटने का मन करता है। लेकिन यह भी तो ज़िंदगी को टुकड़ों में बांटना ही हुआ ना। समझौते ही समझौते हैं, चाहे वह अनचाहे काम से हों या फिर इच्छाओं से भरे हुए।
-पुरानी डायरी के पन्नों से।
So true!!